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जेठ की तपती धूप
आसमान और धरती साएं साएं करती
पानी की एक बूँद का भी न है नामोनिशान
अगर कहीं बूँद है तो वो है
तपती गर्मी में टपकते पसीने की बूँद
हाहाकार मच रही है चारों ओर
परेशान हैं समस्त मानव और जीव
सूख गए हैं वृक्ष सूख रहे हैं लिप्स
ढूँढ रहा है हर कोई छाँव
छाँव ठंडी , घने वृक्षों की
परन्तु वृक्ष बचे हैं कहाँ
क्यों अब हम ढूँढ रहे हैं उन्हें
क्यों अब हमें चाहिए वृक्षों की छाँव
इस बदलते मौसम का जिम्मेदार है कौन
इस बदलते मिजाज का जिम्मेदार है कौन
वृक्षों को काट हमने की है मनमानी
अब भुगतो सहो अपने कर्मों का फल
अगर अब भी तुम न जागे तो मेरे दोस्तों
जिस बर्बादी की सीमा पर हम खड़े हैं
उस सीमा को लाँघने में समय न लगेगा
सब कुछ ख़त्म हो जाएगा कुछ ही सालों में
न आदमी बचेगा न आदमी की जात
खुद तो डूबेगा अपने साथ ले डूबेगा
इस धरती और इस धरती के जीवों को भी
तो अरे मूर्ख मानव अब भी वक्त है जाग जा
कुछ कर इस धरती को संभाल और इसे बचा
कवयित्री – मीता गोयल
meetagoel.in
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